बिरुड़ा पंचमी एवं सातूं-आठुं व्रत देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में एक महत्वपूर्ण पर्व है । इस वर्ष बिरुड़ पंचमी 16 अगस्त व सप्तमी, अष्टमी 18 व 19 अगस्त है । सातूं आंठू पर्व के लिये बिरुड़ भिगाना सबसे मुख्य है । बिरुड़ पांच प्रकार के अनाजों जैसे उड़द, चना, गेहूं आदि को भिगोकर बनाये जाते हैं और फिर बनाये जाते हैं गंवरा -महेश ।  जिन्हें शिव पार्वती के भाव से देखा जाता है ।देवभूमि उत्तराखंड देवी देवताओं की भूमि रही है। यहां शक्ति स्वरूप मां नंदा गमरा को भक्त समाज एक ही भाव से देखता है।
शुभ मुहूर्त -: सातूं- आठूं अर्थात मुक्ता भरण सप्तमी,सन्तान सप्तमी 18 अगस्त  गुरुवार को  मनाई जाएगी एवं  19 अगस्त को दुर्वाअष्टमी मनाई जाएगी । श्री कृष्ण जन्माष्टमी इस बार स्मार्त अर्थात शैव समुदाय के लोग दिनांक 18 अगस्त जबकि वैष्णव समुदाय के लोग दिनांक 19 अगस्त को  मनाएंगे।
सातूं – आठूं व्रत की कथा को महिला वर्ग लोकगीत के रूप में गाती हैं। जब यहां की बहु गमरा से संतान की कामना करते हैं तो बहु सास से गौरा देवी सप्तमी का व्रत करने की इच्छा जताती है और फिर कठिन यत्नों से यह व्रत हो पाता है ।

सप्तमी के दिन ग्रामीण महिलाएं झुंड के रूप में एकत्रित होकर  बिरुड के वर्तनों को सिर में रखकर नदी जलश्रोत या नौले में जाती हैं । पानी के समीप घास से गमरा की मूर्ति बनाती हैं। उन्हें कुमाऊनी वेश भूषा के वस्त्र आभूषण पहनाकर एक डलिया में रखकर शंख घंट की  ध्वनि के साथ घर में विराजमान करते हैं और गंवरा के जन्म से ससुराल जाने तक के गीत गाये जाते हैं। महिलाएं इन्हें बिरुड चढ़ाते हैं।दूसरे दिन महेश्वर जिसे स्थानीय भाषा में मैसर या कहीं मैसु कहते हैं।की आकृति की मूर्ति बनाई जाती है। ब्राह्मण स्त्रोत पाठ से प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं तथा मैसर के साथ गौरा को डलिया में स्थापित किया जाता है। श्री साम्बसदाशिव प्रितिपूर्वकं ऐहिकाअ्मुष्मिक सकल सुख सौभाग्य संतति वृद्धये मुक्ता भरण सप्तमी व्रतं करिक्षे । संकल्प सहित इस प्रकार चित्रांकन करती हैं।

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इसे व्रत को शास्त्रों में संतान सप्तमी व्रत  भी कहा गया है। एक पौराणिक कथा के अनुसार  भगवान श्री कृष्ण ने  धर्मराज युधिष्ठिर को एक कथा सुनाते हुए कहा- एक बार मथुरा में लोमस ऋषि आए । देवकी और वासुदेव ने भक्ति पूर्वक उनकी सेवा की। देवकी और वसुदेव की सेवा से प्रसन्न होकर लोमस ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने का उपाय बताया और कहा कि उन्हें संतान सप्तमी का व्रत करना चाहिए। लोमस ऋषि ने देवकी और वसुदेव को व्रत की विधि और कथा सुनाई। जो इस प्रकार है-अयोध्यापुरी नगर का प्रतापी राजा था जिसका नाम नहुष था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसी राज्य में विष्णु दत्त नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था । उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती साथी सखियां थी। दोनों साथ में ही सारा काम करती थी। स्नान से लेकर पूजा-पाठ दोनों एक साथ ही रहती थी। 1 दिन सरयू नदी में स्नान कर रही थी और वही कई स्त्रियां स्नान कर रही थी। सभी ने मिलकर वहां भगवान शंकर और माता पार्वती की मूर्ति बनाई और पूजा करने लगी। चंद्रमुखी और रूपवती ने उन स्त्रियों से इस पूजन का नाम और विधि बताने को कहा। उन्होंने बताया कि यह संतान सप्तमी व्रत है। और यह व्रत संतान देने वाला है। यह सुनकर दोनों सखियों ने इस व्रत को जीवन भर करने का संकल्प लिया परंतु घर पहुंचकर रानी भूल गई और भोजन कर लिया । मृत्यु के बाद रानी बंदरिया और ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुई। कालांतर में दोनों पशु पक्षियों की योनि छोड़कर मनुष्य योनि में आई। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया। जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्नि मुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। लेकिन पिछले जन्म में व्रत करना भूल गई थी। इसलिए रानी को इस जन्म में संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिला परंतु भूषणा नहीं भूली थी उसने व्रत किया था इसलिए उसे सुंदर और स्वस्थ 8 पुत्र हुए। संतान न होने के कारण रानी परेशान रहने लगी। तभी एक दिन भूषणा उसे मिली। भूषणा के पुत्रों को देखकर रानी को जलन हुई और उसने बच्चों को मारने का प्रयास किया परंतु भूषणा के किसी भी पुत्र को नुकसान नहीं पहुंचा और वह अंत में रानी को क्षमा मांगनी पड़ी। भूषणा ने रानी को पिछले जन्म की बात याद दिलाई और कहा उसी के प्रभाव से आपको संतान प्राप्ति नहीं हुई और मेरे पुत्रों को आप चाह कर भी नुकसान नहीं पहुंचा पाई। यह सुनकर रानी ने विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ता भरण व्रत रखा। जिसके बाद रानी के गर्भ से भी संतान का जन्म हुआ। अतः यह व्रत अवश्य करना चाहिए। अतः कोशिश हो कि एक बार व्रत लेने के बाद फिर प्रत्येक वर्ष यह व्रत किया जाय ।

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