देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं संभाग में एक महत्वपूर्ण त्यौहार है बिरुड पंचमी और सातूं- आठूं व्रत। बिरोड़ा पांच प्रकार के अनाजों जैसे भट्ट, उड़द, चना, गेहूं आदि 5 अनाजों को भिगोकर बनाते जाते हैं। देवभूमि उत्तराखंड देवी देवताओं की भूमि रही है। यहां शक्ति स्वरूप मां नंदा (गमरा) को भक्त समाज एक ही भाव से देखता है। इस दौरान गांव-गांव में गमरा- महेश की स्थापना कर पूजा होगी साथ ही महिलाएं सामूहिक रूप से लोकनृत्य,झोड़ा,चांचरी का गायन भी करेंगी । जिससे इस दौरान गांवों में उत्सव का माहौल रहेगा ।
शुभ मुहूर्त,,,,,,
इस बार सन 2023 में बिरुडा पंचमी दिनांक 21 अगस्त 2023 दिन सोमवार को मनाई जाएगी ।  इस दिन पंचमी तिथि 50 घड़ी 35 पल अर्थात मध्य रात्रि ठीक 2:00 बजे तक है।यदि अमुक्ताभरण सप्तमी व्रत या संतान सप्तमी व्रत ( सातूं व्रत) की बात करें तो दिनांक 23 अगस्त 2023 दिन बुधवार को संतान सप्तमी व्रत मनाया जाएगा एवं दिनांक 24 अगस्त 2023 दिन गुरुवार को दुर्वा अष्टमी( आठूं व्रत)व्रत मनाया जाएगा।
सातूं – आठूं व्रत की कथा को महिला वर्ग लोकगीत के रूप में गाती हैं। जब यहां की बहु गमरा से संतान की कामना करते हैं तो देवी कहती हैं –
*गौरादेवी को सप्तमी को व्रत करूं सासु सप्तमी को व्रत।* इसकेे बाद सास कहती हैं –
*सात समुन्दर पार बटिकलाओ कुकुडी -माकुल को फूल।*
अर्थात सात समंदर पार से कुकुडी माकुल के फूल लाओ।
बहु कहती है –
*गहरी छू गंगा,चिफलो छू बाटो कसिक ल्यूलो इजू कुकुडी माकुल को फूल।* अर्थात नदी गहरी है एवं रास्ता फिसलने वाला है ऐसे में हे माताजी!कुकुडी माकुल के फूल किस प्रकार से लाऊं। सप्तमी के दिन महिलाएं झुंड के रूप में एकत्रित होकर बिरुड के वर्तनों को सिर में रखकर नदी जलश्रोत या नौले में जाती है। पानी के समीप घास से गमरा की मूर्ति बनाती हैं।जिसे कुमाऊनी वेश भूषा के वस्त्र आभूषण पहनाकर एक डलिया में रखकर सिर में धारण कर शंख घंटी ध्वनि के साथ घर के आंगन में गमरा के जन्म से ससुराल जाने तक के गीत गाये जाते हैं। महिलाएं इसे बिरुड चढ़ाते हैं।दूसरे दिन महेश्वर जिसे स्थानीय भाषा में मैसर या कहीं मैसु कहते हैं।की आकृति की मूर्ति बनाई जाती है। ब्राह्मण स्त्रोत पाठ से प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं।तथा मैसर के साथ गौरा को डलिया में स्थापित किया जाता है।
*श्री साम्बसदाशिव प्रितिपूर्वकं ऐहिकाअ्मुष्मिक सकल सुख सौभाग्य संतति वृद्धये मुक्ता भरण सप्तमी व्रतं करिक्षे ।* संकल्प सहित इस प्रकार चित्रांकन करती हैं।
प्रिय पाठकों को मुक्ता भरण सप्तमी की कथा के संबंध में बताना चाहता हूं। इसे संतान सप्तमी व्रत कथा भी कहते हैं।
व्रत कथा-
एक पौराणिक कथा के अनुसार यह कथा भगवान श्री कृष्ण ने पांडु पुत्र धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाई थी। जो इस प्रकार है -एक बार मथुरा में लोमस ऋषि आए देवकी और वसुदेव ने भक्ति पूर्वक उनकी सेवा की। देवकी और वसुदेव की सेवा से प्रसन्न होकर लोमस ऋषि ने उन्हें कंस द्वारा मारे गए पुत्रों के शोक से उबरने का उपाय बताया और कहा कि उन्हें संतान सप्तमी का व्रत करना चाहिए। लोमस ऋषि ने देवकी और वसुदेव को व्रत की विधि और कथा सुनाई। जो इस प्रकार है-अयोध्यापुरी नगर का प्रतापी राजा था जिसका नाम नहुष था। उसकी पत्नी का नाम चंद्रमुखी था। उसी राज्य में विष्णु दत्त नाम का एक ब्राह्मण भी रहता था । उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। रानी चंद्रमुखी तथा रूपवती साथी सखियां थी। दोनों साथ में ही सारा काम करती थी। स्नान से लेकर पूजा-पाठ दोनों एक साथ ही रहती थी। 1 दिन सरयू नदी में स्नान कर रही थी और वही कई स्त्रियां स्नान कर रही थी। सभी ने मिलकर वहां भगवान शंकर और माता पार्वती की मूर्ति बनाई और पूजा करने लगी। चंद्रमुखी और रूपवती ने उन स्त्रियों से इस पूजन का नाम और विधि बताने को कहा। उन्होंने बताया कि यह संतान सप्तमी व्रत है। और यह व्रत संतान देने वाला है। यह सुनकर दोनों सखियों ने इस व्रत को जीवन भर करने का संकल्प लिया परंतु घर पहुंचकर रानी भूल गई और भोजन कर लिया मृत्यु के बाद रानी बंदरिया और ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में पैदा हुई। कालांतर में दोनों पशु पक्षियों की योनि छोड़कर मनुष्य योनि में आई। चंद्रमुखी मथुरा के राजा पृथ्वीनाथ की रानी बनी तथा रूपवती ने फिर एक ब्राह्मण के घर जन्म दिया। जन्म में रानी का नाम ईश्वरी तथा ब्राह्मणी का नाम भूषणा था। भूषणा का विवाह राजपुरोहित अग्नि मुखी के साथ हुआ। इस जन्म में भी उन दोनों में बड़ा प्रेम हो गया। लेकिन पिछले जन्म में व्रत करना भूल गई थी। इसलिए रानी को इस जन्म में संतान प्राप्ति का सुख नहीं मिला परंतु भूषणा नहीं भूली थी उसने व्रत किया था इसलिए उसे सुंदर और स्वस्थ 8 पुत्र हुए। संतान न होने के कारण रानी परेशान रहने लगी। तभी एक दिन भूषणा उसे मिली। भूषणा के पुत्रों को देखकर रानी को जलन हुई और उसने बच्चों को मारने का प्रयास किया परंतु भूषणा के किसी भी पुत्र को नुकसान नहीं पहुंचा और वह अंत में रानी को क्षमा मांगनी पड़ी। भूषणा ने रानी को पिछले जन्म की बात याद दिलाई और कहा उसी के प्रभाव से आपको संतान प्राप्ति नहीं हुई और मेरे पुत्रों को आप चाह कर भी नुकसान नहीं पहुंचा पाई। यह सुनकर रानी ने विधिपूर्वक संतान सुख देने वाला यह मुक्ता भरण व्रत रखा। जिसके बाद रानी के गर्भ से भी संतान का जन्म हुआ। अतः यह व्रत अवश्य करना चाहिए। ध्यान रहे एक बार व्रत लेने के बाद फिर प्रत्येक वर्ष यह व्रत छूटना नहीं चाहिए।

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लेखक-: पण्डित प्रकाश जोशी,गेठिया नैनीताल ।

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