*सर्वार्थ सिद्धि योग, रवि पुष्य योग, एवं सुकर्मा योग के दुर्लभ संयोग में मनाया जाएगा इस बार रामनवमी पर्व।*

 


इस बार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम का जन्मोत्सव बहुत खास होने वाला है। इस वर्ष रामनवमी पर्व 6 अप्रैल 2025 को मनाया जाएगा और इस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग, सुकर्मा योग एवं रवि पुष्य योग का अद्भुत संगम बन रहा है। मात्र एक योग भी किसी पर्व विशेष की महत्ता को बढ़ा देता है परन्तु इतने योगों के अद्भुत संगम के क्या कहने इसलिए इस दिन दान एवं पूजा का बहुत फल मिलेगा।

6 अप्रैल रविवार को यदि नवमी तिथि की बात करें तो 33 घड़ी 32 पल अर्थात शाम 7:23 बजे तक नवमी तिथि रहेगी। इस दिन रविवार एवं पुष्य नक्षत्र एक साथ होने से रवि पुष्य योग बन रहा है। यदि पुष्य नक्षत्र की बात करें तो पुष्य नक्षत्र अहोरात्र तक रहेगा। यदि सर्वार्थ सिद्धि योग की बात करें तो इस दिन प्रातः 5:58 बजे से अगले दिन प्रात 5:57 बजे तक सर्वार्थ सिद्धि योग रहेगा इसके अतिरिक्त सुकर्मा नामक योग भी 32 घड़ी 22 पल अर्थात शाम 6:55 बजे तक है। सबसे महत्वपूर्ण यदि इस दिन के चंद्रमा की स्थिति को जानें तो इस दिन चंद्र देव पूर्ण रूप से कर्क राशि में विराजमान रहेंगे।
बता दें कि रामनवमी पर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का जन्म हुआ था। यदि पूजा के मुहूर्त की बात करें तो प्रातः 11:09 बजे से मध्यान 1:40 तक पूजा और हवन किया जा सकता है। श्री राम जन्म मध्यान अभिजीत मुहूर्त में हुआ था। यदि इस दिन अभिजीत मुहूर्त की बात करें तो मध्यान 12:04 बजे से 12:54 बजे तक अभिजीत मुहूर्त रहेगा।

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*रामनवमी की कथा-:*
रामायण और रामचरित मानस हमारे पवित्र ग्रंथ
हैं। तुलसीदास जी ने श्री राम को ईश्वर मान कर
रामचरितमानस की रचना की है किन्तु
आदिकवि वाल्मीकि ने आअपने रामायण में श्री
राम को मनुष्य ही माना है। तुलसीदास जी ने
रामचरितमानस को राम के राज्यभिषेक के बाद
समाप्त कर दिया है वहीं आदि कवि श्री वाल्मीकि ने अपने रामायण में कथा को आगे श्री राम के महाप्रयाण तक वर्णित किया है।
महाराजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ आरंभ
करने की ठानी। महाराज की आज्ञानुसार श्याम कर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा
दिया गया। महाराज दशरथ ने समस्त मनस्वी,
तपस्वी, विद्वान ऋषि-
मुनियों तथा वेदविज्ञ
प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये
बुलावा भेज दिया। निश्चित समय आने पर
समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ
अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभ पाद के जामाता ऋंग ऋषि को लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे। इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारंभ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूंजने तथा समिधा की सुगन्ध से महकने लगा।
समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई। राजा दशरथ ने यज्ञ के प्रसाद चरा (खीर) को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में
वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के
परिणामस्वरूप तीनों रानियों ने गर्भधारण
किया।
जब चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को
पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथाशुक्रपांचग्रहअपने
अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे,
कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की
बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से एक शिशु का
जन्म हुआ जो कि नील वर्ण चुंबकीय आकर्षण
वाले, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा
अत्यंत सुंदर था। उस शिशु को देखने वाले देखते रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा।महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सराएं नृत्य करने
लगीं। देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने राजद्वार पर आए भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले
ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी।
पुरस्कार में प्रजा-जनों को धन-धान्य तथा
दरबारियों को रत्न, आभूषण प्रदान किए गए।चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ के द्वारा किया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र,भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गए।आयु बढ़ने के साथ ही साथ रामचन्द्र गुणों में भी
अपने भाइयों से आगे बढ़ने तथा प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय होने लगे। उनमें अत्यन्त विलक्षण प्रतिभा थी जिसके परिणामस्वरूप अल्प काल में ही वे समस्त विषयों में पारंगत हो गए। उन्हें सभी प्रकार के अस्त्र- शस्त्रों को चलाने तथा हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी
में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त हो गई। वे
निरन्तर माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में
लगे रहते थे।उनका अनुसरण शेष तीन भाई भी करते थे।गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति इन चारों भाइयों में थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द भी था। महाराज दशरथ का हृदय अपने चारों पुत्रों को देख कर गर्व और आनन्द से भर उठता था।

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आलेख के लेखक-:
आचार्य पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल।

By admin

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