कहा-: कई विरोधाभास हैं आदेश में, विधायिका के अधिकारों का भी हुआ है अतिक्रमण ।
नैनीताल । नैनीताल से हाईकोर्ट शिफ्ट करने के सम्बंध में 8 मई को हाईकोर्ट द्वारा दिया गया फैसला विरोधाभासी है जिसमें विधायिका की शक्तियों का अतिक्रमण हुआ है । इस मामले में नागरिक सोसाइटी नैनीताल की ओर से हाईकोर्ट में रिव्यू पिटीशन दायर की जाएगी ।
गुरुवार को नैनीताल में पत्रकारों से वार्ता में वरिष्ठ पत्रकार राजीव लोचन साह, पद्मश्री प्रो.शेखर पाठक, प्रो.अजय रावत, पद्मश्री अनुप साह, ज़हूर आलम, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष पी. सी. तिवारी, प्रो.शीला रजवार, प्रो.उमा भट्ट, अधिवक्ता डी. के. जोशी,दिनेश उपाध्याय आदि ने पत्रकारों से वार्ता में हाईकोर्ट के आदेश में कई खामियां गिनाई ।
कहा कि उच्च न्यायालय का यह निर्णय बगैर किसी गहन विचार-विमर्श के आधार पर लिया गया है। न्यायालय ने अपने इस फैसले में बहुत सी ऐसी बातें कहीं हैं, जो या तो उसके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करती हैं या फिर परस्पर विरोधाभासी हैं। प्रदेश सरकार के स्तर पर उच्च न्यायालय के विस्तार के लिये एक प्रक्रिया चल ही रही है। सरकार ने अपनी कैबिनेट बैठक में इस बारे में निर्णय लिया है और उस निर्णय को कार्यान्वित करने की दिशा में प्रयत्नशील है। ऐसे में न्यायालय का इस बारे में निर्णय देना विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण ही माना जायेगा। हाईकोर्ट ने सर्वोच्च न्यायालय का उल्लेख कर हल्द्वानी में प्रस्तावित हाईकोर्ट की भूमि के अधिकांश भूभाग पर वृक्ष होने पर चिन्ता व्यक्त की है, विशेषकर हाल के दिनों में प्रदेश के जंगलों में व्यापक रूप से लगी आग के सन्दर्भ में। यह चिन्ता सराहनीय है, मगर यह ध्यान देने की बात है कि विकास कार्यों के लिये पेड़ों का कटान होता ही है और उसके लिये प्रतिपूरक वृक्षारोपण की व्यवस्था है। जब वृक्षों का अनावश्यक कटान हो तो सबसे पहले जनता ही आपत्ति उठाती है। मगर जहाँ जनता विरोध करती है, वहाँ विकास के नाम पर जबर्दस्ती भारी संख्या में दुर्लभ प्रजातियों के ऐसे पेड़ काट दिये जाते हैं, जिनका विकल्प सम्भव ही नहीं है। चार धाम के लिये बन रही ऑल वैदर रोड इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है, जिसका वहाँ के लोगों ने लगातार विरोध किया, मगर इसके बन जाने के बाद लगातार प्रकृति से छेड़छाड़ का खामियाजा भुगत रहे हैं। इसकी तुलना में तराई भाबर के जंगल उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं। यदि शासन-प्रशासन में इच्छा शक्ति हो तो प्रतिपूरक वृक्षारोपण से कहीं भी वैसा जंगल तैयार किया जा सकता है। यह बात समझ से परे है कि यदि न्यायालय ने हाईकोर्ट स्थानान्तरित करने का मन बना ही लिया है तो फिर एक पोर्टल बना कर अधिवक्ताओं और आम जनता की राय माँगने का क्या अर्थ रह जाता है ? जनता की राय यदि हाईकोर्ट के नैनीताल में ही बने रहने के पक्ष में आता है तो क्या अदालत का फैसला स्वतः ही निरस्त हो जायेगा ? वैसे भी उत्तराखंड की जनता तीस वर्ष पहले, वर्ष 1994 में ही कौशिक समिति के सामने अपनी राय रख चुकी है, जिसका सम्मान उच्च न्यायालय को करना चाहिये और हाईकोर्ट को गैरसैंण ले जाने का फैसला करना चाहिये।
न्यायालय ने कोर्ट को हटाने के लिये नैनीताल नगर में सुविधाओं के अभाव का भी तर्क दिया है। विशेष रूप से उसने पर्यटन की समस्या, ट्रैफिक, कनेक्टिविटी और स्वास्थ्य सुविधाओं का जिक्र किया है। सच्चाई यह है कि पहाड़ के बाकी हिस्सों की तुलना में नैनीताल में बहुत अधिक सुविधायें हैं । पर्वतीय क्षेत्रों में सुविधायें पैदा करने की जरूरत है न कि सुविधाओं के नाम पर पहाड़ों में मौजूद संस्थाओं, कार्यालयों को पहाड़ से उठा कर मैदानी क्षेत्रों में ले जाने की। ऐसा करने से एक पर्वतीय राज्य के रूप में उत्तराखंड की जरूरत पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
कहा कि सोसाइटी विधिसम्मत रूप से उत्तराखंड उच्च न्यायालय के सामने रिव्यू पीटिशन के रूप में न्यायालय को नैनीताल से अन्यत्र शिफ्ट करने का निर्णय वापस लेने का निवेदन करेंगे ।