*बहुत महत्वपूर्ण है आज मनाया जाने वाला कुमाऊं का लोकपर्व फूलदेई।*


फूलदेई बच्चों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है।
बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं बच्चे ही भगवान का अंश होतेहैं बच्चे खुश हैं तो समझो भगवान खुश है भगवान खुश
है तो समझो संपूर्ण प्रकृति खुश है, जहाँ
प्रकृति खुशहै समझो संपूर्ण ब्रहमाण्ड खुश है।
। इसलिए क्यों न इस पारंपरिक त्योहार को
और अधिक हर्षोल्लास से मनाये।आज समय अवश्य बदल गया हैं परन्तु फिर भी यह परंपरा जीवित है । मेरा उत्तराखण्ड के प्रत्येक
व्यक्ति से विनम्र निवेदन है कि इस पारंपरिक
त्योहार को और अधिक हर्षल्लास से मनाया
जाये। इस त्योहार में तो बच्चों की खुशी का
ठिकाना नहीं रहता है । बच्चे एक दिन पूर्व से
ही फूल को संग्रहित करने में जुटे रहते हैं और बड़े उत्साहित रहते हैं । रिंगाल की टोकरी में
प्योली,बुरांस,(बासिंग, आडू, खुबानी, मेहल
आदि के फूल इकट्टा करके फूलदेई के दिन सुबह नहा धोकर घर घर जाकर लोगों की सुख समृद्धि के लिए पारंपरिक गीत गाते हुए- “फूलदेई छम्मादेई,दैणी द्वार भर भकार, ये देलिस बारंबार नमस्कार”पुजै द्वार बारंबार फुलै द्वार बारंबार,” अर्थात
आपकी देली फूलों से भरी और सब की रक्षा
करने वाली और क्षमा शील हो, घर व समय
सफल रहे, भंडार भरे रहे, इस देली को बारंबार
नमस्कार गीत की पंक्त्तियौं के, साथ यह त्योहार मनाया जाता है । कुमाऊँ और गढ़वाल के
ज्यादातर इलाकों में तो आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है, वही टिहरी के अधिकाश
जगहों में एक माह तक यह पर्व मनाया जाता
है। “घोधा माई फुल्यां फूल। दे दे माई दाल
चौल ।।फूल देई छम्मा देई।दैणी द्वार भरी भकार ।।”
गाते हुए बच्चों को लोग इसके बदले दाल चावल घी , गुड़ और दक्षिणा रुपये देते हैं । चावलों को धोकर सुखाने के बाद चाक जतारा में पीस कर।यहाँ बता दूं जतारा ठेट पहाड़ी शब्द है जिसे हाथ से चलने वाली या हस्तचालित चक्की कहते हैं।आधुनिक युग में ये लुप्तप्राय हो चुकी है साई
का अभिप्राय चावल के आटे उसका हलवा
जिसे कुमाऊँ में साई कहते हैं । साई का प्रसाद
बना कर सबको बांटते हैं । जगह जगह बच्चों
की टोली इकट्टी देख सभी का मन हर्षोल्लास से खिल उठता है । घर घर में एक नई रौनक
देखने को मिलती है, वैसे देखा जाए तो बसंत पूजन की परंपरा इटली रोम से शुरू हुई मानी जाती है।रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम फ्लोरा था । यह शब्द लैटिन भाषा
के फ्लोरिस से लिया गया है । बसंत के आगमन
में वहाँ छ:दिनों का पलोरिया महोत्सव मनाया जाता है। वहाँ पहाडी क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जिंदा है । फ्लोरा को एक देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । जिसके हाथ में फूल की टोकरी है देवी के सिर पर फूल और पत्तौ का ताज होता है।खैर वहाँ जो कुछ भी हो हम उत्तराखण्ड वासियों को यह परंपरा जीवित
रखनी चाहिए और दर साल दर इसे और अधिक बढ़ावा देते रहना चाहिए।इन सब के अलावा कुमाऊं में इस महिने को “काला महिना ” भी कहा जाता है।नई नवेली दुल्हन भी पांच दिनों तक ससुराल से आकर मायके में रहती हैं। और आज से कुमाऊं में भिटौली देने की परंपरा भी है।

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आलेख के लेखक-: आचार्य पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल।

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