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फूलदेई देवभूमि उत्तराखंड का महत्वपूर्ण त्योहार। दिनांक 14 मार्च 2024 को है यह महत्वपूर्ण पर्व।
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फूलदेई बच्चों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। बच्चे ही देश का भविष्य होतेहैं बच्चे ही भगवान का अंश होतेहैं बच्चे खुश है तो समझो भगवान खुश हैं भगवान खुश
है तो समझो संपूर्ण प्रकृति खुश है, जहाँ
प्रकृति खुश है समझो संपूर्ण ब्रहमाण्ड खुश है । इसलिए क्यों न इस पारंपरिक त्योहार को और अधिक हर्षोल्लास से मनाये।
आज समय अवश्य बदल गया हैं परन्तु फिर भी
यह परंपरा जीवित है । मेरा उत्तराखण्ड के प्रत्येक
व्यक्ति से विनम्र निवेदन है कि इस पारंपरिक
त्योहार को और अधिक हर्षोल्लास से मनाया
जाये । इस त्योहार में तो बच्चों की खुशी का
ठिकाना नहीं रहता है । बच्चे एक दिन पूर्व से ही
फूल को संग्रहित करने में जुटे रहते हैं और बड़े
उत्साहित रहते हैं । रिंगाल की टोकरी में प्योली,बुरांस,बासिंग, आडू, खुबानी,मेहल आदि के
फूल इकट्टा करके फूलदेई के दिन सुबह नहा
धोकर घर घर जाकर लोगों की सुख समृद्धि के
लिए पारंपरिक गीत गाते हुए फूलदेई छम्मा देई,
दैणी द्वार भर भकार, ये देलिस बारंबार नमस्कार
पुजै द्वार बारंबार फुलै द्वार बारंबार, अर्थात
आपकी देली फूलों से भरी और सब की रक्षा
करने वाली और क्षमा शील हो, घर व समय
सफल रहे, भंडार भरे रहे, इस देली को बारंबार
नमस्कार गीत की पंत्तियौ के, साथ यह त्योहार मनाया जाता है । कुमाऊँ और गढ़वाल के ज्यादा
तर इलाकों में तो आठ दिनों तक यह त्योहार
मनाया जाता है, वही टिहरी के अधिकांश जगहों में एक माह तक यह पर्व मनाया जाता है । घोघा माई फुल्यां फूल। दे दे माई दाल चौल ।।फूल देई छम्मा देई ।
दैणी द्वार भरी भकार ।।
गाते हुए बच्चों
को लोग इसके बदले दाल चावल घी और दक्षिणा रुपये देते हैं । चावलों को धोकर सुखाने
के बाद चाक जतारा में पीस कर ।

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यहाँ बता दूँ
जतारा ठेट पहाड़ी शब्द है जिसे हाथ से चलने
वाली या हस्तचालित चक्की कहते हैं। आधुनिक युग में ये लुप्तप्राय हो चुकी है।साई का अभिप्राय चावल के आटे उसका हलवा
जिसे कुमाऊँ में साई कहते हैं । साई का प्रसाद
बना कर सबको बांटते हैं । जगह जगह बच्चों की
टोली इकट्ठी देख सभी का मन हर्षोल्लास से
खिल उठता है । घर घर में एक नई रौनक देखने
को मिलती है, वैसे देखा जाए तो बसंत पूजन
की परंपरा इटली रोम से शुरू हुई मानी जाती है।रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम फ्लोरा था । यह शब्द लैटिन भाषा
के फ्लोरिस से लिया गया है । बसंत के आगमन
में वहाँ छ:दिनों का फ्लोरिया महोत्सव मनाया
जाता है । वहाँ पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह
परंपरा जिंदा है । फ्लोरा को एक देवी के रूप में
प्रदर्शित किया जाता है । जिसके हाथ में फूल की
टोकरी है देवी के सिर पर फूल और पत्तौ का
ताज होता है ।

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खैर वहाँ जो कुछ भी हो हम
उत्तराखण्ड वासियों को यह परंपरा जीवित रखनी
चाहिए और दर साल दर इसे और अधिक बढ़ावा
देता चाहिए।
लेखक–:  आचार्य पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल।

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