दिनांक 19 मई 2023 दिन शुक्रवार को मनाया जाएगा वट सावित्री व्रत। जानते हैं वट सावित्री की संपूर्ण कथा।


वटस्यमूले शुद्धासने कृतनित्यक्रिया उपविश्य कलशं संस्थाप्य तत्र देवान सम्पूज्य तत: पंच देवता विष्णुं च सम्पूज्य कुशत्रयतिल जलान्यदाय नमो अद्धय ज्येष्ठ मासे कृष्ण पक्षे अमावस्यां तिथौ अमुक गोत्रोत्पन:(अपने गोत्र का नाम) अमुकी देवी (अपना नाम) सौभाग्य प्राप्ति कामा ब्राह्मणा सह सावित्री पूजनं च करिष्ये। संकल्प लेने के बाद सावित्री पूजन करें। किसी सुयोग्य ब्राह्मण द्वारा पूजा करवाए। इस बार यह व्रत दिनांक 19 मई 2023 दिन शुक्रवार को मनाया जाएगा।
वट सावित्री संपूर्ण व्रत कथा।
पार्वती जी ने कहा हे देवताओं के देवता जगत के पति शंकर भगवान !प्रभास क्षेत्र में स्थित ब्रह्मा जी की प्रिया जो सावित्री जी हैं उनका चरित्र आप मुझसे कहिए। जिसमें व्रत का माहात्म्य हो और उसके संबंध का इतिहास हो एवं जो स्त्रियों के पतिव्रत्य को देने वाला सौभाग्य दायक और महान उदय का करने वाला हो। तब शंकर भगवान ने कहा हे पार्वती! प्रभास क्षेत्र में स्थित सावित्री के असाधारण चरित्र को मैं तुमसे कहता हूं। हे माहेश्वरी! सावित्री स्थल नामक स्थान में राजकन्या सावित्री ने जिस प्रकार से उत्तम वट सावित्री व्रत का पालन किया मद्र अर्थात मद्रास देश में एक धर्मात्मा सभी प्राणियों के हित में तत्पर रहने वाले राजधानी तथा राज्य में रहने वाली प्रजाओं का प्रिय अश्वपति नामक राजा था। जो क्षमाशील संतान रहित सत्यवादी और इंद्रियों को वश में रखने वाला था। एक समय वह राजा प्रभास क्षेत्र की यात्रा के निमित्त वहां पर आया और विधि पूर्वक यात्रा करता हुआ सावित्री स्थल पर पहुंचा। वहां पर उस राजा ने अपनी रानी के साथ इस व्रत को किया। जो सावित्री व्रत से प्रसिद्ध सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। ओम भूर्भुवः स्व: इस मंत्र की साक्षात मूर्ति बनकर स्थित ब्रह्मा जी की प्रिया सावित्री देवी उस राजा पर प्रसन्न हुई कमंडल को धारण करने वाली वह सावित्री देवी दर्शन देने के बाद पुनः अदृश्य हो गई और बहुत दिनों के बाद उसी राजा के यहां देवी के समान रूप वाली कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। सावित्री की प्रसंनता से प्राप्त तथा सावित्री की पूजा करने के बाद हुई अतः राजा ने ब्राह्मण की आज्ञा से कन्या का नाम सावित्री रखा। वह कन्या अत्यंत सुंदर थी और स्वर्ण की प्रतिमा के समान दिखाई पड़ती थी। लोग उसे देखकर यही समझते थे कि यह कोई देवकन्या है। वह सावित्री भर्गु द्वारा कहे गए सावित्री व्रत को करने लगी व्रत के आरंभ में सुंदर वर्ण वाली उसे उपवास करके सिर से स्नान की हुई सावित्री देवी की प्रतिमा के पास जाकर अग्नि में हवन करके ब्राह्मण से स्वस्तिवाचन कराया और ब्राह्मण से अवशिष्ट पुष्पांजलि ग्रहण करके सखियों से घिरी हुई लक्ष्मी देवी के समान सुंदर रूप से सुशोभित हुई। वह राजकन्या समीप में आकर पिता के चरणों में प्रणाम कर प्रथम पुष्पांजलि को निवेदित कर हाथ जोड़कर राजा के पास में स्थित हुई। युवावस्था को प्राप्त हुई देखकर राजा ने उसके विषय में मंत्रियों से सलाह की और राजकन्या से कहने लगा हे पुत्री! तुम्हें योग्य वर देने का समय आ गया है। मुझसे कोई तुम्हें मांगने के लिए भी नहीं आता और मैं भी विचार करने पर तुम्हारे आत्मा के अनुरूप वर को नहीं पा रहा हूं। अतः हे पुत्री! देवताओं के निकट में जिस तरह निंदनीय न हूं वैसा तुम करो। मैंने धर्म शास्त्रों में पढ़ा और सुना भी है कि यदि पिता के ग्रह में रहती हुई विवाह से पहले ही जो कन्या रजोधर्म से युक्त हो जाती है वह शुद्र के समान समझी जाती है। तथा उसके पिता को ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। इसलिए हे पुत्री !में तुमको भेज रहा हूं कि तुम स्वयं अपने योग्य वर ढूंढ लो। वृद्ध मंत्रियों के साथ शीघ्र जाओ और मेरी बात को मानो। इसके बाद जैसा कहते हैं वैसा ही होगा ऐसा कह कर सावित्री घर से निकलकर राजर्षियों के रम्य तपोबन की ओर चल पड़ी और वहां पहुंच कर माननीय वृद्ध जनों को प्रणाम कर सभी तीर्थों और आश्रमों में जाकर पुनः मंत्रियों के साथ सावित्री अपने ग्रह पर आ गई और वहां पर पिताजी के समक्ष देवर्षि नारद को बैठे हुए देखा। आसन पर बैठे हुए नारद जी को प्रणाम कर मुस्कुराती हुई जिस कार्य के लिए मैं गई थी सारी कथाएं उससे कहने लगी। सावित्री बोली- हे देवर्षि नारद जी! साल्व देश में धर्मात्मा द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक क्षत्रिय राजा है। जो दैववश अंधे हो गए हैं। उस समय उनको छोटा सा एक बालक और उसकी मां थी। ऐसे समय में अवसर पाकर उनका पूर्व बैरी रुक्मी नामक एक सामंत राजा ने उनसे राजपाट छीन लिया। अतः वह आर्य द्युमत्सेन छोटे बच्चे को साथ लिए हुए अपनी स्त्री के साथ जंगल की ओर चल दिए। उनका वह पुत्र वन में ही बड़ा होकर धार्मिक सत्य बोलने वाला है। अतः अपने अनुरूप पति समझ कर मैंने उसे मन से वरण कर लिया है।
यह सुनकर नारदजी ने कहा -हे राजन !सावित्री ने यह बड़ा कष्टप्रद कार्य कर डाला। बाल बुद्धि होने से इसने केवल गुणवान समझकर सत्यवान को वरण कर लिया। उसका पिता सत्य बोलता है माता सत्य बोलती है और वह स्वयं भी सत्य बोलता है। इससे उसका नाम मुनियों ने सत्यवान रखा है। उसको नित्य अश्व अर्थात घोड़े प्रिय हैं और वह मिट्टी के घोड़े बनाया करता है तथा चित्रों में भी घोड़ों को लिखता रहता है इससे उसे चित्राश्व भी कहते हैं। सत्यवान दान और गुण में रंतिदेव के शिष्य के समान है। ब्राह्मणों की रक्षा करने वाला और सत्यवादी तथा शिवि के समान है। ययाति के समान उदार चंद्रमा के समान देखने में प्रिय लगने वाला रूप में दूसरे अश्विनी कुमार के समान और द्युमत्सेन के समान बलवान है किंतु उसमें केवल यही एक दोष है दूसरा कोई नहीं की सत्यवान आज से ठीक 1 वर्ष पर क्षीणायु हो जाने से देह त्याग कर देगा।
इस प्रकार नारद की बात सुनकर राजकन्या सावित्री ने राजा से कहा राजा लोग किसी से एक बार कोई बात कहते हैं। ब्राह्मण एक ही बार कहते हैं और एक ही बार कन्या दी जाती है। यह तीनों काम एक ही बार किए जाते हैं बारंबार नहीं। दीर्घायु हो अथवा अल्पायु गुणवान हो अथवा निर्गुण वर को एक बार वरण कर लिया। अब दूसरे वर को वरण नहीं करूंगी। पहले मन से निश्चय करके बाद में उसे वाणी द्वारा प्रकट किया जाता है। पुनः इसके बाद कर्म द्वारा किया जाता है। इससे प्रत्येक कार्य में मन को प्रमाण माना जाता है अर्थात मन के विरुद्ध कार्य नहीं किया जाता है। नारद जी ने कहा -हे राजन !यदि आपको ईष्ट हो तो अपनी पुत्री सावित्री का कन्यादान निर्विघ्नता
के साथ शीघ्र कर डालिए । ऐसा कहकर नारद जी आकाश मार्ग से स्वर्ग लोक को चले गए। इसके बाद राजा ने भी शुभ मुहूर्त के समीपवर्ती वेदों के पारगामी ब्राह्मणों के द्वारा पुत्री सावित्री का विवाह संबंधी सभी कार्य संपन्न किया और सावित्री भी सत्यवान पति को पाकर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई पुण्यवान पुरुष स्वर्ग को देखकर प्रसन्न होता है।
पुनः शिव जी पार्वती जी से कहते हैं- हे पार्वती! इस प्रकार इस आश्रम में उस समय हुए सावित्री और सत्यवान के कुछ समय व्यतीत हुए। उस समय केवल एक भार्या सावित्री ही ऐसी थी कि जिस के चित्त में रात दिन जो नारद की कही हुई बात थी। उसकी याद बनी रहती थी । उसके बाद बहुत दिन बीत जाने पर वह समय आ गया कि जिसमें सत्यवान को मरना था। तिथि को सायं काल में आज से चौथे दिन मेरे पति को मरना चाहिए यह सोचकर 3 रात्रि तक निराहार व्रत रहने का उद्देश्य रखकर रात दिन आश्रम में स्थूल रूप से रहने लगी। इसके बाद 3 रात्रि बीत जाने पर प्रातः काल स्नान कर देवताओं का तर्पण करने के बाद चारु हासिनी सावित्री ने सास ससुर का पद वंदन किया। इसके बाद जब कुल्हाड़ी लेकर सत्यवान जंगल की ओर चला तब जाते हुए अपने पति के पीछे-पीछे सावित्री भी चली। वन में पहुंचकर सत्यवान जल्दी से फल पुष्प कुशा तथा सूखी लकड़ियों को इकट्ठा कर सामर्थ्य योग्य भार बनाने लगा। काटते काटते उसके सिर में पीड़ा होने लगी जिससे उस कार्य को छोड़कर वह वटवृक्ष की एक शाखा का सहारा लेकर सावित्री से कहने लगा- हे सुंदरी! सिर की वेदना मुझे दुख दे रही है। अतः मैं तुम्हारी गोद में क्षण भर सोना चाहता हूं। सावित्री ने दुखित होकर कहा- हे महाबाहो! आप विश्राम करें पीछे हम श्रम को दूर करने वाले आश्रम को चलेंगे। जैसे ही पृथ्वी पर बैठी हुई सावित्री ने सत्यवान के सिर को अपनी गोद में रखा वैसे ही उसने कृष्ण मिश्रित पिंगल वर्ण वाले कृष धारी पीत वस्त्र पहने हुए साक्षात सूर्य के समान उदित हुए पुरुष को देखा। उसे देखकर सावित्री प्रणाम कर मधुर वचनों में उससे कहने लगी आप देवताओं अथवा दैत्यों में से कौन हैं? जो मुझे धर्मच्युत करने के लिए आए हैं। मुझे अपने धर्म से च्युत करने के लिए कोई समर्थ नहीं है क्योंकि -हे पुरुष श्रेष्ठ! मुझे धधकती आग के लपट के समान ही समझिए। यमराज ने कहा मैं सब प्राणियों के लिए भयंकर और क्रमानुसार उनका उचित दंड देने वाला यम है। सो हे पतिवर्ता सावित्री समीप में पड़े हुए तुम्हारे इस पति की आयु समाप्त हो गई है। इसे यमदूत पकड़कर नहीं ले जा सकेंगे इसलिए मैं स्वयं आया हूं। ऐसा कह कर फांस को लिए हुए यमराज ने सत्यवान के शरीर से अंगुष्ठ मात्र शरीर वाले पुरुष अर्थात जीवात्मा को बलपूर्वक निकाल दिया इसके बाद पित्रगण से सेवित यमपुरी के मार्ग की ओर चलना प्रारंभ किया। वह सावित्री भी उसके पीछे-पीछे चली। अपने पतिव्रता होने के नाते चलने में न थकती हुई उससे कहा हे सावित्री! एक मुहूर्त हो गया तुम यहां तक मेरे साथ आ गई अब लौट जाओ। हे विशाल नेत्रों वाली !कोई जीव बिना आयु समाप्त हुए इस यमपुरी के मार्ग पर नहीं आ सकता है। सावित्री ने कहा आपके जैसे विशिष्ट पुरुष के साथ पति का अनुगमन करती हुई मुझे कभी भी शर्म या गलानी नहीं हो सकती सज्जनों की गति एकमात्र सज्जन ही है दूसरा नहीं। इसी प्रकार स्त्रियों की गति उनका पति वर्णआश्रमों की गति वेद और शिष्यों की गति गुरु है। इस पृथ्वी लोक में सब प्राणियों के स्थान हैं किंतु स्त्रियों के लिए तो एक मात्र पति को छोड़कर दूसरा कोई आश्रय नहीं है। इस प्रकार धर्म तथा अर्थ से भरे हुए सुंदर मधुर अन्य वाक्यों से भी सूर्यपुत्र यमराज ने प्रसन्न होकर सावित्री से यह बात कही। यमराज ने कहा हे भामिनी! मैं तुमसे प्रसन्न हूं तुम्हारा कल्याण हो तुम मुझसे वर मांगो परंतु सत्यवान के प्राणों को छोड़ दो। सावित्री ने भी विनय से सिर झुका कर अपने लिए राज्य पाने का वर मांगा और अपने महात्मा ससुर के लिए देखने की शक्ति पाने के साथ साथ पुनः राज्य प्राप्ति एवं अपने पिता के लिए सौ पुत्रों की तथा अंत में अपने लिए भी सौ पुत्रों की प्राप्ति के लिए वरमांगा। बेझिझक होकर यमराज ने भी तथास्तु कह डाला। सावित्री बोली मेरे पति के प्राणों को आप लिए जा रहे हैं परंतु मुझे पुत्रवती होने का वरदान दे रहे हैं? तब हार मानकर यमराज ने उसे अभीष्ट वर प्रदान कर वापस किया। इसके बाद सावित्री पति का जीवन दान प्राप्त कर प्रसंन्नचित होती हुई अपने पति के साथ शांति से अपने आश्रम को चली गई। उसी सावित्री ने जेष्ठ की पूर्णिमा के दिन इस सावित्री व्रत को किया था। इसके प्रभाव से राजा अर्थात उसके ससुर को पुनः नेत्र की प्राप्ति हुई उसके बाद उन्हें निस कंटक अपने देश तथा राज्य की प्राप्ति हुई और सावित्री के पिता को 100 पुत्र तथा सावित्री को भी 100 पुत्र प्राप्त हुए।तो बोलिए सती सावित्री की जै।

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