देवभूमि उत्तराखंड वासियों का प्रकृति प्रेम विश्व विख्यात है। चाहे वह पेड़ बचाने के लिए चिपको आंदोलन हो या पेड़ लगाने के लिए मैती आंदोलन या प्रकृति का त्यौहार हरेला हो। ठीक इसी प्रकार प्रकृति के लिए प्रेम प्रकट करने का त्यौहार या प्रकृति का आभार प्रकट करने का प्रसिद्ध त्यौहार फूलदेई। फूलदेई त्यौहार मुख्यतः छोटे-छोटे बच्चों द्वारा मनाया जाता है। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध लोक पर्व है।  प्रसिद्ध त्यौहार फूलदेई चैत्र मास की प्रथम गते को मनाया जाता है। इस दिन से हिंदू नव शक सम्वत्सर मनाया जाता है। जिस प्रकार चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन से नव विक्रम संवत मनाया जाता है ठीक इसी प्रकार चैत्र एक प्रविष्टि से नव शक सम्वत्सर का प्रारंभ होता है। अर्थात प्रत्येक वर्ष मार्च महीने के 14 या 15 तारीख को यह त्यौहार मनाया जाता है। इस बार सन् 2023 में दिनांक 15 मार्च दिन बुधवार को यह पर्व मनाया जाएगा।
देवभूमि उत्तराखंड का महत्वपूर्ण त्यौहार फूलदेई बच्चों का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है। बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं। बच्चे ही भगवान का रूप होते हैं। जहां बच्चे खुश हैं तो समझो भगवान खुश है। यदि भगवान खुश है तो समझो संपूर्ण प्रकृति खुश है। जहां प्रकृति खुश है तो समझो संपूर्ण ब्रह्मांड खुश है। इसलिए क्यों नहीं इस पारंपरिक त्यौहार को और अधिक हर्षोल्लास से मनाया जाए। आज समय और बदल गया है परंतु फिर भी यहां परंपरा जीवित है। मेरा उत्तराखंड के प्रत्येक व्यक्ति से विनम्र निवेदन है कि इस पारंपरिक त्यौहार को और अधिक हर्षोल्लास से मनाया जाए। इस त्यौहार में तो बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। बच्चे एक दिन पूर्व से फूलों को संग्रहित करने में जुट जाते हैं। और बड़े उत्साहित रहते हैं। रिंगाल की टोकरी में प्योली, बुरांस, बासिंग, आडू, खुबानी, मेहल आदि अनेक प्रकार के फूलों को इकट्ठा कर फूलदेई के दिन प्रातः स्नान कर घर घर जाकर लोगों की सुख समृद्धि के लिए यह पारंपरिक गीत गाते हुए देहली का पूजन करते हैं। जो गीत निम्न प्रकार से है।
फूलदेई छम्मा देई, दैणी द्वार भर भकार।
ये देलिस बारंबार नमस्कार ।
पुजै द्वार बारंबार ।
फुलै द्वार बारंबार ।
अर्थात आपकी देहली फूलों से भरी और सब की रक्षा करने वाली और क्षमाशील हो। घर व समय सफल रहे। भंडार भरे रहे। इस देहली को बारंबार नमस्कार। गीत की पंक्तियों के साथ यह त्यौहार मनाया जाता है। कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में तो यह त्यौहार 8 दिनों तक मनाया जाता है। वही टिहरी के अधिकांश क्षेत्रों में एक माह तक यह पर्व मनाया जाता है।
घोघा माता फुल्यां फूल ।
देदे माई दाल चौंल ।
फूल देई छम्मा देई ।
दैणी द्वार भरी भकार ।
गीत गाते हुए बच्चों को लोग इसके बदले दाल चावल गुड़ घी और दक्षिणा देते हैं। चावलों को धोकर सुखाने के बाद चाक( जतारा) में पीसकर इसका साईं बनाते हैं। यहां बताना चाहूंगा कि जतारा ठेठ पहाड़ी शब्द है। जिसे हाथ से चलने वाली चक्की या हस्त चलित चक्की कहते हैं। साईं का अभिप्राय चावल के आटे से बने हुए हलवे से है। आधुनिक युग में तो हस्त चलित चक्की या हाथ से चलाने वाली चक्की लुप्त प्राय हो चुकी हैं, साईं का प्रसाद बनाकर सबको बांटते हैं। जगह-जगह बच्चों की टोली इकट्ठी देख सभी का मन हर्ष से खिल उठता है। घर घर में एक नई रौनक देखने को मिलती है। वैसे देखा जाए तो बसंत पूजन की परंपरा इटली के रोम से प्रारंभ हुई मानी जाती है। रोम की पौराणिक कथाओं के अनुसार फूलों की देवी का नाम फ्लोरा था। यह शब्द लैटिन भाषा के फ्लोरिश शब्द से लिया गया है। बसंत के आगमन में वहां 6 दिनों का फ्लोरिया महोत्सव मनाया जाता है। वहां पहाड़ी क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा जिंदा है। फ्लोरा को एक देवी के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जिसके हाथों में फूल की टोकरी है। देवी के सिर पर फूल और पत्तों का ताज होता है। खैर वहां जो कुछ भी हो हम उत्तराखंड वासियों को अपनी यह परंपरा जीवित रखनी चाहिए। साल दर साल से और अधिक बढ़ावा देना चाहिए। इससे हमारी संस्कृति हमारे देवभूमि की संस्कृति जीवित रहेगी। आप सभी को सपरिवार फूलदेई पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

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💐लेखक–:: पंडित प्रकाश जोशी, गेठिया, नैनीताल💐

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