नैनीताल । हिंदी विभाग, उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी एवं रज़ा न्यास, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में राज्य अतिथि गृह, नैनीताल के सभागृह में आयोजित त्रि-दिवसीय रज़ा के चित्रों की प्रदर्शनी “रज़ा शिखर” के नैनीताल प्रसंग के उद्घाटन सत्र में अध्यक्षीय उद्बोधन देते हुए सुपरिचित छायाकार पद्मश्री अनूप शाह ने कहा कि एक ही दृश्य को एक ही विषय को एक ही रंग को बड़ा कलाकार अपनी मौलिक दृष्टि से देखता है। चित्रों में अथवा छायाचित्रों में क्षण सबसे महत्वपूर्ण होता है। हर कलाकार की अपनी मौलिक दृष्टि होती है, जिसके पीछे उसका अपना एक जीवन-संघर्ष निहित होता है। स्वागत एवं विषय-प्रवर्तन करते हुए कार्यक्रम के सचिव युवा कवि कुमार मंगलम ने कहा कि रज़ा के चित्र अपने आरम्भ में भौतिकता के साथ शुरू होकर मनुष्य के दार्शनिक-आध्यात्मिक चेतना तक आती है। रज़ा के चित्रों में निहित दार्शनिकता जीवन के आकुल प्रश्नों से जूझने की बैचैनी नहीं बल्कि जीवन सत्य को तलाशने की जद्दोजहद है। कार्यक्रम के पहले वक्ता डॉ. राजेन्द्र कैड़ा ने कहा कि भारतीय मिथकों के दो बड़े चरित्र राम और कृष्ण काले हैं किन्तु लोक उन्हें नीलवर्णी कहता है। रज़ा के रंग संयोजन को इस संदर्भ में देखने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि रज़ा साहब के चित्रों देखने के लिए आवश्यक है कि आप किस बिंदु पर खड़े होकर उन चित्रों को देखते हैं। रज़ा के चित्र साधना और समय की माँग करते हैं। रज़ा के चित्रों में मौजूद द्वंद्व मार्क्सवादी द्वंद्ववाद का भी हो सकता है, जिनमें विषाद का रंग गहरा है। अगले वक्ता और संचालक युवा कवि डॉ. अनिल कार्की ने कहा जब दुनिया एकरंगी होने को उद्धत है तब रज़ा के बहुविध रंगों को समझना भारतीय समरसता की व्याख्या है। रज़ा के रंग इश्क मजाज़ी से इश्क हकीकी तक की यात्रा करते हैं। अगले वक्ता डॉ. नागेन्द्र गंगोला ने कहा की रज़ा के चित्रों की केंद्रबिंदु बिंदु है। रज़ा साहब के चित्र दीखते सहज हैं किन्तु यह सहजता आसान नहीं है। रज़ा के चित्रों में निहित मेटाफर इन्डियननेस की व्याख्या है। युवा आलोचक डॉ. वंशीधर उपाध्याय ने कहा कि रज़ा के चित्रों को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि शब्दों की दुनिया रंगों की दुनिया से परिभाषित हो सकती है। रज़ा की भारतीयता को आज स्थापित होती भारतीयता के संदर्भ में नहीं व्याख्यायित किया जा सकता। रज़ा साहब के चित्रों में अभिव्यक्त काला रंग स्याह और सफेद नहीं। रज़ा ने काले रंग के माध्यम से आत्म को अभिव्यक्त किया। रज़ा के रंग पुराने को बाईपास नहीं करते बल्कि उनमें एक सार्थक संयोजन देखने को मिलता है। रज़ा के बिंदु सिर्फ रज़ा के हैं। रज़ा ने प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष से प्रकटीकृत किया जो स्व और पर के बंधन से मुक्त है। अगले वक्ता पृथ्वीराज सिंह ने कहा कि रज़ा के चित्र बहुस्तरीय है जिसमें दर्शक की कल्पना के लिए अधिक अवकाश है। रज़ा साहब देखने के समझ को विस्तारित करने वाले कलाकार हैं। उनके चित्रों में निहित संयोजन हमें अपने भीतर उतरने को मजबूर करती हैं। युवा आलोचक डॉ. शिव प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि जीवन के पतझड़ में रज़ा के रंग जीवन के उजास को अभिव्यक्त करता है। रज़ा के चित्रों में अभिव्यक्त रंग जीवन की सम्पूर्णता को अभिव्यक्त करते हैं। रज़ा की लाल से काला रंग की यात्रा जीवन की यात्रा है। सुश्री विनीता यशस्वी ने कहा कि रज़ा के चित्रों में रंगों की बहुतायत होने के बावजूद वे एक-दूसरे को ओवरलैप नहीं करते। सभी रंगों की अपनी ईयता और स्वतंत्रता है। चर्चित रंगकर्मी श्री एच.एस. राणा ने कहा कि अमूर्त्त को मूर्त्त बनाना रज़ा साहब की उपलब्धि है। कार्यक्रम का सञ्चालन डॉ. अनिल कार्की और धन्यवाद ज्ञापन सुश्री दिव्या ने किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के शिक्षक और कार्मिक सदस्य उपस्थित रहे साथ ही नैनीताल के प्रबुद्ध सहृदय, साहित्यकार और रंगकर्मी भी मौजूद रहे।