*ये दिन घ्यूं निखलात अघिल जनम में बनला गनेल।*
*बात सच्ची छू यो जन समझ्या तुम खेल।*
अर्थात इस दिन यदि घी का सेवन नहीं करोगे तो अगले जन्म में गनेल(घोंघा) बनोगे।इसे मजाक न समझें।
यह किंवदंती है देवभूमि उत्तराखंड में।
*शुभ मुहूर्त-:*
इस बार दिनांक 17 अगस्त 2025 दिन रविवार को सिंह संक्रांति पर्व मनाया जाएगा। इस दिन नवमी तिथि 34 घड़ी 12 पल अर्थात शाम 7:25 बजे तक है। यदि नक्षत्र की बात करें तो इस दिन रोहिणी नक्षत्र 53 घड़ी 52 पल अर्थात अगले दिन प्रातः 3:17 बजे तक है। इस दिन तैतिल नामक करण 6 घड़ी 52 पल अर्थात प्रातः 8:29 बजे तक है। सबसे महत्वपूर्ण यदि इस दिन के चंद्रमा की स्थिति को जाने तो इस दिन चंद्र देव पूर्ण रूपेण वृषभ राशि में विराजमान रहेंगे।
देवभूमि उत्तराखंड जहां हरेला पर्व से लगभग
त्योहारों की झड़ी सी लग जाती है। सावन मास के बाद फिर जब भादो मास के पहले दिन यानी एक पैट (एक गते) भादो को एक ऐसा त्यौहार भी है जिस दिन पारंपरिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति को घी खाना नितांत आवश्यक
है। ऐसा माना जाता है कि जो व्यक्ति इस दिन
घी का सेवन नहीं करेगा वह अगले जन्म में घोंघा (जिसे कुमाऊंनी में गनेल कहते हैं) की योनि को प्राप्त होता है। यह एक किंवदंती है।
इस दिन भगवान सूर्य देव 12 राशियों में से कर्क राशि को छोड़कर सिंह राशि में प्रवेश करते हैं। इसलिए इसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं। यहां लोक पर्व के साथ-साथ अनेकों
मान्यताएं भी जुड़ी हैं। ऐसा माना जाता है कि
यदि इन्हें न माना जाए तो व्यक्ति को कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मेरा भी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि इन मान्यताओं को नजरअंदाज नहीं करना
चाहिए क्योंकि परंपराओं को कुछ सोच समझकर ही बनाया गया होगा। जिन मान्यताओं में से कुछ इस प्रकार से हैं। घी
खाने की परंपरा संभवतः गर्मी व बरसात के मौसम में खानपान को लेकर कुछ परहेज किया जाता था। बरसात जाने के बाद नया मौसम आने पर अपने खाने की इच्छाएं पूरी करने के लिए संभवतः घी के पकवान खाए जाते थे। किसान लोग अपने घर के दरवाजे पर गाय का गोबर चिपकाते हैं ऐसा करना शुभ माना जाता है। बड़े बुजुर्गों का मानना है कि अखरोट के फल का सेवन घी संक्रांति के दिन से ही किया जाता है। घ्यूत्यार को लेकर एक पौराणिक मान्यता है कि इस दिन घी का सेवन करने से ग्रहों के अशुभ प्रभाव से भी लाभहोता है। राहु और केतु ग्रह का व्यक्ति पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि व्यक्ति सकारात्मक सोच रखते हुए जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ता है।
इसी दिन से पिनालू (अरबी) के गाबे मंदिरों में चढ़ने के उपरांत इस दिन से इसकी सब्जी बनाने की शुरुआत होती है। घ्यूत्यार के दिन नये बनने वाले व्यंजनों मैं सबसे मुख्य है (मांसक बेड्डु रोट) उड़द दाल से निर्मित मोमनदार रोटी। यह उड़द की दाल को लगभग 6 घंटे पानी में भिगोकर बाद में साफ करके सिलबट्टे में पीसकर बनाई जाती है। इसे घी और गाबे की सब्जी के साथ खाने का आनंद ही कुछ और है। यह बहुत शुभ भी माना जाता है। घ्यूत्यार के दिन घी खाने के अतिरिक्त शरीर के अंगों में जैसे कुहनी घुटने आदि में लगाना भी बुजुर्ग लोग बताते हैं। यदि बात करें ग्रंथों की तो चरक संहिता के अनुसार भी घी खाने से अनेक लाभ हैं। इससे शरीर की अनेक व्याधियां दूर होती हैं। उदाहरणार्थ कफ पित्त दोष तो दूर होते ही हैं बुद्धि भी तीव्र होती है। इसके अतिरिक्त इससे स्मरण शक्ति भी बढ़ती है। वेद पुराणों में भी घी के बिना कोई कार्य संपूर्ण नहीं होता है। यज्ञ में भी घी की आहुति देना आवश्यक है। पंचामृत एवं पंचगव्य में गाय के घी को निम्न मंत्रोचार के साथ किया जाता है-
*ॐ घृतं घृत पावनः पिबतान्तरिक्ष स्यः हविरसि स्वाहा।*
अतः पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि हमें अपनी संस्कृति विलुप्त होने से बचाएं। एवं इन लोक पर्वों को हर्षोल्लास के साथ मनाएं। कम से कम वर्ष के तीज त्यौहार के दिन अपनी संस्कृति के अनुसार तो घर में पकवान बनाएं। अतः सभी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि फास्ट फूड का प्रयोग कम से कम करें और अपनी संस्कृति से संबंधित पकवानों को एहमियत दें। ऐसा करने से हमारी संस्कृति जिंदा रहेगी।घी संक्रांति के दिन से पहाड़ों में झोडा चांचरी का आयोजन भी प्रारंभ होने लगते हैं। जहां तक गनेल बनने का प्रश्न है संभवत: बुजुर्गों का संकेत आलसी बनने से होगा। क्योंकि गनेल(घोंघा)को आलसी का प्रतीक माना जाता है।
इस पर्व पर कृषक वर्ग सबसे पहले ग्राम देवता, को गाबे (पिनालू के बीच के बन्द पत्ते), मक्का, दही, घी, मक्खन आदि का ओलग अर्पित करते हैं। तदुपरांत पंडितों, पुजारियों और रिश्तेदारों को भी ओलाग दिया जाता है।
मूल रूप से यह एक मौसमी त्योहार है। जिसे खेती से जुड़े किसानों और पशुपालकों द्वारा उत्साहपूर्वक मनाया जाता है।
इस दिन गांव के घरों की महिलायें अपने बच्चों के सिर पर ताजा मक्खन मलती हैं। साथ ही उनकी लंबी उम्र की कामना करते हैं।गांव के किसान अपने खेतों में उगाए गए फल, सब्जियां और सब्जियां शाही दरबार में चढ़ाते थे। इसे ओलाग का रिवाज कहा जाता था।
व्यक्ति का पारिवारिक आधार चाहे जो भी हो इस दिन सभी के लिए घी अथवा मक्खन सिर पर मलना तथा खाने में इसका प्रयोग अवश्य ही किया जाता है।
कुमाऊं मंडल में इस ऋतु उत्सव को ‘ओलगिया’ कहा जात है। इस त्यौहार पर उपहार दिए जाते हैं अतः विशेष भेंट को “ओलग” कहा जाता था। जो कि पुराने समय मे यहाँ के कृषकों के द्वारा अपने भूस्वामियों तथा शासन को यह उपहार दिए जाते थे। पुरातन लोक मान्यताओं के अनुसार इस दिन पंडितों को भी यजमानों द्वारा उपहार (ओलग) दिया जाता था।
जो लोग किसान नहीं थे अर्थात शिल्पकार लोग अपने स्थानीय स्वामियों तथा आश्रयदाताओं को अपने हाथ की बनी शिल्पीय वस्तुएं, यथा लोहार-दराती, कुदाल, दीपकदान, पिजरें आदि, दर्जी नमूनेदार टोपियां, बटुए, देवी देवताओं के कपड़े आदि तथा बढ़ई बच्चों के खेलने के लिए कड़कड़वा बाजा, डोली, लकड़ी की गुल्लख आदि लाकर भेंट करते थे। गृहशिल्पों के विलुप्त हो जाने तथा परम्परागत व्यवसायों की विमुखता के कारण ‘ओलग’ (भेंट) देने की परम्परा भी समाप्त हो सी ही गयी है।
किन्तु ग्रामीण समाज में ‘घी संक्रान्ति’ को मनाये जाने तथा सर्वप्रथम देवी-देवताओं तथा पंडित जनों को भेंट करके ही गाबे खाने की परम्परा अभी भी जीवित है। पर नवीन शहरीकरण वाले चक्र में यह कब तक जीवित रह सकेगी यह कहना कठिन ही है ।
लेखक -:आचार्य पण्डित प्रकाश चन्द्र जोशी ।