*श्रावणी उपाकर्म (कुमाऊं में जन्योपुन्यू)जनेऊ बनाने की विधि सहित।*
श्रावण का अर्थ है सुनना और उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना अथवा शुरू करना। अब प्रश्न उठता है कि सुनना क्या है? और शुरू क्या करना है? प्राचीन काल से ही श्रावणी उपाकर्म का बहुत महत्व रहा है जबकि बालकों को शिक्षा ग्रहण हेतु गुरुकुल भेजा जाता था। उन्हें द्विज बनाया जाता था। वेद पाठ के द्वारा उनमें वैदिक संस्कार डाले जाते थे। जो वैदिक एवं वेद पाठी ब्राह्मण हैं यह कर्म करते हैं। यह श्रावणी उपाकर्म क्या होता है? यह 10 विधि स्नान कर मनाया जाता है। इसमें पितरों तथा आत्म कल्याण के लिए मंत्रों के साथ यज्ञ में आहुतियां दी जाती हैं। इस महत्वपूर्ण दिन पित्र तर्पण और ऋषि तर्पण भी किया जाता है। ऐसा करने से पितरों का आशीर्वाद और सहयोग मिलता है। जिसके मिलने से जीवन के हर संकट समाप्त हो जाते हैं। श्रावणी उपाकर्म में वैदिक विधि से हेमाद्रिप्राक्त प्रायश्चित संकल्प, सूर्य आराधना, स्नान ,तर्पण ,सूर्योपासना, यज्ञोपवीत धारण करना, प्राणायाम, अग्निहोत्र तथा ऋषि पूजन किया जाता है।
*१-प्रायश्चित संकल्प-* इसमें हेमाद्री स्नान संकल्प गुरु के सानिध्य में ब्रह्मचारी गो दुग्ध, दही घी, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से
स्नान कर वर्ष भर में जाने अनजाने में हुए पाप कर्मों का प्रायश्चित कर जीवन को सकारात्मकता देते हैं। स्नान के बाद ऋषि पूजन सूर्योपासना एवं यज्ञोपवीत पूजन करने के विधान हैं।
*२- संस्कार -*
उपरोक्त कार्य के बाद नया जनेऊ धारण करना अर्थात आत्म संयम का संस्कार होना माना जाता है इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि जो व्यक्ति आत्मा संयमी है वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है।
*३-स्वाध्याय -*
उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसका प्रारंभ सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, निद्रा, प्रज्ञा, स्मृति, अनुमति, छंद और ऋषि को व्रत की आहुति से होती है। जौं के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती। इस यज्ञ के बाद वेदांग का अध्ययन प्रारंभ होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा 5 या 6 महीने तक चलती है। अब वर्तमान में वैदिक शिक्षा या गुरुकुल तो रहे नहीं प्रतीक के रूप में स्वाध्याय किया जाता है।
इसके अतिरिक्त देव भूमि उत्तराखंड के कुमाऊं
संभाग में तिवारी एवं त्रिपाठी आदि सामवेदीय ब्राह्मण हरतालिका तीज यानी भाद्रपद शुक्ल पक्ष तृतीया को सामवेदीय उपाकर्म होता है। देवभूमि उत्तराखंड में रक्षा बन्धन के दिन जन्योपुन्यू मनाई जाती है इस दिन नई जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ बनाने और पहनने के पूरे नियम होते हैं विधान है प्राचीन समय में ऋषि मुनि ज्ञानी लोग होते थे। वह आम और खास तक अपने उपदेशों को पहुंचाने की पूर्णाहुति के लिए सावन मास की पूर्णिमा के दिन को चुनते थे। और अपने यजमानों के हाथों में रक्षा का धागा बांधते थे। रक्षा सूत्र बांधने से तीनों देव अर्थात ब्रह्मा विष्णु महेश के साथ तीनों देवियां सरस्वती लक्ष्मी और पार्वती प्रसन्न होती हैं। रक्षा सूत्र बांधने के मुहूर्त में ऋषि तर्पण भी संपन्न किया जाता है। इस मुहूर्त के बीच सिर्फ भद्रा दोष नहीं होना चाहिए। कहा जाता है कि कर्क राशि कुंभ और मीन राशि के चंद्रमा में भद्रा हो तो इसका निवास भूलोक में अर्थात मनुष्य लोक में होता है इसका परिहार किया जाता है। यदि उस दिन शनिवार हो तो उसे वृश्चिक भद्रा कहा जाता है। यह सबसे अधिक कष्टकारी तथा अशुभ मानी जाती है। इसी प्रकार कन्या तुला धनु एवं मकर राशि के चंद्रमा में भद्रा का निवास पाताल में माना जाता है। मात्र मेष ,वृषभ, मिथुन और वृश्चिक राशि के चंद्रमा में भद्रा का निवास स्वर्ग में माना जाता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा बलि के अति आत्मविश्वास व अभिमान की परीक्षा श्रावण पूर्णिमा के ही दिन भगवान ने वामन अवतार लेकर की तभी ब्राह्मण लोग अपने जजमान को रक्षा सूत्र पहनाते समय निम्न मंत्र पढ़ते-
*येनबध्दो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबलः ।*
*तेन त्वामनु बन्धामि रक्षे माचलमाचलः ।।* हमारे पहाड़ में सावन शुक्ल की पूर्णिमा उपा कर्म व रक्षा सूत्र बंधन का प्रमुख त्यौहार है। ब्राह्मण वर्ग इस दिन उपवास रखकर जलस्रोत नौले या नदी में स्नान कर मंत्र के उच्चारण के साथ स्नान करते हैं फिर गांव में किसी मंदिर में या कुल ईष्ट मंदिर में इकट्ठा होते हैं और ऋषि तर्पण किया जाता है। वेद मंत्रों का उच्चारण होता है। और सभी जनेऊ तथा रक्षा के धागे प्रतिष्ठित करे जाते हैं। और फिर उचित मुहूर्त में जनेऊ बदलने के लिए प्रतिष्ठित की जाती है। तदुपरांत ये प्रतिष्ठित जनेऊ पंडित जन अगले वर्ष रक्षाबंधन से पूर्व अपने जजमान के घर जाकर उन्हें जनेऊ देते और रक्षा सूत्र बांधते हैं जो उस वर्ष जनेऊ बनायी जाती हैं वो रक्षाबंधन के दिन प्रतिष्ठित कर पुनः अगले वर्ष के लिए रख दी जाती हैं यह क्रम निरंतर चलता रहता है।
*रक्षा सूत्र एवं जनेऊ प्रतिष्ठा मंत्र-*
तांबे के पात्र में जौ ,कुश, दुर्वा ,सरसों ,गंध ,अक्षत गोमई ,दधि सहित रक्षा सूत्र तथा यज्ञोपवित स्थापित करें।
जल से प्रक्षालन करें-
*ॐ आपो हिष्ठा मयो भुवः । * * ॐ तान ऊर्जे दधातन।*
* *ॐ महेरणाय चक्षसे।*
* **ॐ यो वः शिवतमो रसः ।* *ॐ तस्य भाजयतेह नः ।*
* *ॐ उशतीरिव मातरः ।* *ॐ तस्माअरंगमामव।* *ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ।*
* *ॐ आपो जनयथा च नः ।*
तदुपरांत 10 बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित जल के छींटे देकर 9 तंतुओं में 9 देवताओं का आवाहन करें।
कुछ भक्त नियम पूर्वक जनेऊ नहीं बदलते हैं। जनेऊ बदलने का नियम है सर्वप्रथम नई जनेऊ धारण करें पुरानी जनेऊ को एक साथ मिला लें तदुपरांत पुरानी जनेऊ उतारनी चाहिए।
नई जनेऊ धारण करने का मंत्र-
* *यज्ञोपवितंपरमं पवित्रं प्रजापतेयतर्तसहजंपुरुस्तात ।*
* *आयुष्य मग्रप्रतिमुन्च शुभ्रमयज्ञोपवितं बलमस्तु तेजः ।।*
फिर तदुपरांत 11 बार गायत्री मंत्र का स्मरण करें। और प्रिय पाठकों को जनेऊ बनाने के बड़े महत्वपूर्ण नियम बताना चाहूंगा इसमें सर्वप्रथम कपास को 3 दिन धूप में सुखाकर रुई निकाल कर उसे साफ किया जाता था रुई की पोनी जिसे कतुये मैं काता जाता था इसे घुमाने और बाएं हाथ पर रुई की डोर हवा में ऊपर उठाए धागा बनाते थे। अब बाजार में बारीक धागा मिलता है उसे कतुए में बटकर तैयार किया जाता है फिर इस तंतु को 3 गुना करके पूरा जाता है फिर कतुए के वट देकर पुनः 3 गुना करते हैं जो नौ तन्तु मिलकर एक धागा तैयार होता है धागा निकालने समय से चार अंगुलियों में 96 बार लपेट कर बनाया जाता है 96 बार इसलिए क्योंकि 96 की संख्या में 32 विधाएं होती है जिसमें ऋग्वेद आदि चार वेद फिर चार उपवेद 6 अंक 6 दर्शन तीन सूत्र ग्रंथ और 9 हुए अरण्यक। शेष 64 कलाएं होती हैं। जिसमें ललित कलाएं हैं। 3 सूत्रों में जो सूत्र बटा होता है उसे लेकर जमीन में बैठकर अपने पैरों के आसन फैला दोनों मुड़े हुए घुटनों में लपेटकर तंतु का शीरा पकड़ कर तीन गुना करते हुए दाहिने हाथ की चार अंगुलियों में 96 बार लपेटा जाता है। इसके बाद उस त्रिगुणित गुच्छे को कतुये द्वारा बटदेकर एक सूत्र बनता है। पुनः त्रिगुणात्मक सूत्र का तीन गुना करके हाथों से बट दी जाती है अब यह नौ सूत्री धागा तैयार हो गया।फिर सूत्र के दोनों सिरों में पांच ग्रंथि दी जाती है पहली ग्रंथि ब्रह्मा जी की प्रतीक और 64 धर्म कर्म काम और मोक्ष का बोध कराती है। पहले तीन सूत्र का जनेऊ तैयार होता है इसे व्यापक प्रतीकों का आधार दिया गया है। पहला ब्रह्मा विष्णु महेश दूसरा तीन प्रकार के ऋण देव ऋण, ऋषि ऋण, एवं पित्र ऋण तथा तीसरा शक्तियां जैसे आदि दैविक, आदि भौतिक, एवं आध्यात्मिक । तथा 3 गुण सतोगुण, रजोगुण एवं तमोगुण। तथा पांचवा गायत्री के 3 चरणों वह जीवन की तीनअवस्थाओं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ का पतीक माना जाता है। सन्यास लेने पर जनेऊ उतारने की परंपरा है।
*शुभ मुहूर्त-:*
इस बार दिनांक 9 अगस्त 2025 दिन शनिवार को रक्षाबंधन पर्व मनाया जाएगा। इस दिन यदि पूर्णिमा तिथि की बात करें तो 19 घड़ी 22 पल अर्थात दोपहर 1:25 बजे तक पूर्णिमा तिथि रहेगी। इस दिन श्रवण नामक नक्षत्र 21 घड़ी 50 पल अर्थात दोपहर 2:24 बजे तक है। सौभाग्य नामक योग 51 घड़ी 27 पल अर्थात अगले दिन प्रात 2:15 बजे तक है। बव नामक करण 19 घड़ी 22 पल अर्थात दोपहर 1:25 बजे तक है। यदि इस दिन के चंद्रमा की स्थिति को जानें तो इस दिन चंद्र देव मकर राशि में विराजमान रहेंगे। सबसे महत्वपूर्ण यदि इस दिन जनेऊ धारण करने और रक्षा धारण करने के मुहूर्त के बारे में जानें तो इस दिन दोपहर 1:25 बजे तक जनेऊ धारण एवं रक्षा धारण करने का शुभ मुहूर्त है तदुपरांत कृष्ण पक्ष प्रतिपदा तिथि प्रारंभ हो जाएगी।
*आलेख -: आचार्य पंडित प्रकाश जोशी गेठिया नैनीताल।*